कुदरत के हिसाब से जीते-जीते
पता ही नहीं चला
कब लाखों दुश्मन बना बैठी मैं
क्यूंकि उन लाखों समाज के ठकेदारों के
उस सभ्य ढांचे में फिट नहीं होती थी मैं..
अगर अपनी हर सांस का भी हिसाब मैं उन्हें देती
उनकी बनाईं हर जंजीर
हर बंधन को
मैं सर झुकाकर मान लेती
भूल जाती कि मुझमें भी सांसें चलती है..
जिंदगी धड़कती है..
और बन जाती उनके इशारों पर चलने वाली
रोबोट सरीखी-सी मशीन
तो सभ्य कहलाती मैं...
मगर विडम्बना कि कुदरत ही रह गई मैं....
और उस ढांचे के किसी काम की नहीं रही मैं
और बहुत देर से समझ पाई
कि औरत अगर एक लम्हा भी अपने लिए चाह लेती है
तो स्वार्थी, खुदगर्ज और मतलबी समझी जाती है..
और जो हमेशा इस्तेमाल करते है हमारा हर रिश्ते में
उस सभ्य समाज के लिए बेकार हो जाती है..
इसलिए चाहे बाहर से तन्हा रहे
या फिर भीतर से
मगर औरतें अक्सर
तन्हा ही रह जाती है...।